Parmarth Gurukul Celebrates Yagyopaveet Sanskar of Banks of Mother Ganga

Following in the divine tradition of Upakarma – meaning to initiate, invite and bring to pass – the Rishikumars of the Parmarth Gurukul gathered on the holy banks of Mother Ganga to celebrate Shravani Upakarma by taking the Yagyopaveet Sanskar as they begin their studies under the guidance and blessing of HH Param Pujya Swami Chidanand Saraswatiji and the Acharyas of the Gurukul.

This sacred festival – the festival of purity and cleanliness, atonement and inspiration – takes place on the full moon of the month of Shravan, and is a symbol of the important responsibilities that the student shoulders – responsibilities towards parents and family; towards society and Guru; and, now, towards the environment, nature and our Mother Earth.

Shri Ramanant Tiwari ji, the administrator of Parmarth Niketan; Acharya Sandeep Bhattji; Acharya Deepak Parmarth; and, all the Rishikumars of Gurukul joined in the Sanskar, which includes the sacred snan and meditation, worship and annointing of Gangaji.


परमार्थ निकेतन के आचार्यों और ऋषिकुमारों ने आज श्रावणी पर्व के अवसर पर गंगा स्नान, उपाकर्म व गंगा पूजन कर इस महापर्व को मनाया।

सनातन परंपरा के अनुसार श्रावण मास की पूर्णिमा को श्रावण उपाकर्म मनाया जाता है। दिव्यता से युक्त इस महापर्व का संबंध उस पवित्रता व शुचिता से युक्त ब्रह्मसूत्र से है। यज्ञोपवीत के धागे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं, सत्व, रज और तम, देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण, गायत्री मंत्र के तीन चरणों और तीन आश्रमों का प्रतीक भी माना जाता है। यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है, जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। इसे पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक माना गया है।

यज्ञोपवित अहम जिम्मेदारियों का भी प्रतीक है, यथा माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी, परिवार के प्रति जिम्मेदारी, समाज के प्रति जिम्मेदारी, गुरु के प्रति जिम्मेदारियों की याद दिलाता है परन्तु अब हमें इसका विस्तार करना होगा क्यों कि हमारी जिम्मेदारी हमारे पर्यावरण, प्रकृति और अपनी धरती माता के संरक्षण की भी है।

श्रावणी उपाकर्म श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। सनातन संस्कृति से ही इस पर्व को शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना गया है। यह पर्व प्रायश्चित से प्रेरणा का संदेश देता है।

उपाकर्म से तात्पर्य ’आरंभ करना, आमंत्रित करना व पास लाना है’’। वैदिक काल में यज्ञोपवित के पश्चात ही नए बटुकों की शिक्षा आरंभ की जाती थी तथा वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों को गुरु के पास गुरूकुलों में लाया जाता था। परमार्थ गुरूकुल में आज भी इस दिव्य परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यज्ञोपवित व उपाकर्म संस्कार करके विद्यार्थियों को विद्या अध्ययन हेतु प्रेरित किया जाता है।

श्रावण माह अर्थात मानसून का मौसम होता है, इस मौसम में अनेक वनस्पतियाँ व जड़ी-बूटियाँ उत्पन्न होती हैं अतः इस दिव्य अवसर पर श्रावणी उपाकर्म मनाया जाता है। इसके तीन महत्वपूर्ण उद्देश्य है, प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार व स्वाध्याय।

उपाकर्म संस्कार में सर्वप्रथम ‘प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प’ होता है। जिसमें गुरु के पावन सान्निध्य में जीवन को सकारात्मकता दिशा में बढ़ने का संकल्प लिया जाता हैं। तत्पश्चात ऋषि पूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार, आत्म संयम का है; द्विजत्व का है। द्विजत्व अर्थात संस्कारोक्त दूसरा जन्म। इसका तीसरा सोपान स्‘वाध्याय’ जिसके माध्यम से वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है ताकि स्वाध्याय के साथ सुसंस्कारों का विकास हो सके।

यज्ञोपवीत संस्कार हमारी कर्तव्य निष्ठा, कर्तव्य परायणता, उत्तरदायित्व, जिम्मेदारी के निर्वहन की याद दिलाता है तथा शरीर, वाणी और मन मस्तिष्क शुद्ध कर कार्य सिद्धि की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।

उपाकर्म पूजन संस्कार में परमार्थ निकेतन के व्यवस्थापक श्री रामअनन्त तिवारी जी, आचार्य संदीप शास्त्री, आचार्य दीपक शर्मा और गुरूकुल के सभी ऋषिकुमारों ने सहभाग कर स्नान, ध्यान, पूजन व गंगा जी का अभिषेक किया।